सुशीला पुरी की कविताओं का स्वर गम्भीर है और उनसे आती जीवनानुभव की आँच को पाठक सहज ही महसूस कर सकता है । इनकी कविताओं की भाषा भी उतनी ही सहज होती है । अपनी कविता के लिए विषय़ भी वे ज़िन्दगी से ही चुनती हैं । कहीं कोई चमत्कार पैदा करने की कोशिश नहीं , न ही पाठक को आकर्षित करने का कोई अतिरिक्त दबाव । अपने सरोकारों के लिए ये कविताएँ अलग से रेखांकित किए जाने का हक़ स्वत: अर्जित करती हैं । यहाँ सुशीला जी की तीन ताज़ा कविताएँ एक साथ -
१. स्त्री (एक)
अरहर की तरह
सालों -साल
खुले आसमान तले
खड़े रहने, जुटे रहने की
विवश अनिवार्यता ।
अरहर की तरह
भुनकर- टूटकर
अलग -अलग होकर ही
मिली सार्थकता ।
अरहर की तरह
गलकर ,तरल होकर
पीलापन ओढ़कर ही
परोस पाई स्वाद ।
अरहर की तरह
भिगोकर ,मरोड़कर
पोर -पोर छीलकर
बना दी गई
खाली टोकरी ।
२. स्त्री (दो)
गेहूँ में घुन जैसे
पिसती रही चुकती रही
बटुली में दाल सी
पकती रही गलती रही
अदहन की तरह
समय खदबदाता रहा
चुपचाप निर्विकार ।
घर के जालों में
उलझ गईं उम्मीदें
पुराने पलस्तर सी
झड़ती रही उखड़ती रही,
आम के अचार सी
बन्द रही
मोटे मर्तबानों में ।
कोल्हू की तरह घूमी
पेरी गई सरसों सी
धान के बेहन सी
कहीं उगी ,कहीं फली
तार तार मन -गूदड़
गूँथती रही कथरी
सुई की नोक लिए ।
३.बहुत मुश्किल है
बहुत मुश्किल है इस उचक्के समय में
बचा पाना
खुद को
और साथ ही बचा पाना
उन सपनों को
जिनके भ्रूण हत्या की साजिश हो चुकी है,
बहुत कठिन है
बचा पाना उस विश्वास को
जिसके बल पर
सात पहाड़ लांघ जाने का हौसला है,
दुरूह हो रहा है
बचा पाना
उस उम्मीद को
जहाँ से
अंधेरों के वक्त
बीन लेते हैं थोड़ी रौशनी,
मुश्किल है बच पाना
प्रेम का भी
इतनी उठा-पटक में
क्योंकि इतनी कोमल चीज का बच पाना कठिन है
इस पथरीले समय में ।