सोचता हूं कि इतने सारे मजहब न होते तो भी दुनिया इतनी ही सुंदर
होती । लेकिन सोचने से क्या होता है । ये सारे मजहब तो हैं और रहेंगे । शायद आगे और
नये मजहब भी आएं । इतिहास यही कहता है । लेकिन इतिहास एक बात और बताता है कि हर नया
मजहब एक पुराने पड़ रहे मजहब की बुराइयों को दूर करने की नीयत से आता है और अन्तत: उन्हीं
बुराइयों में खुद एक दिन गर्क हो जाता है । यह एक सिलसिला सा लगता है । राजनीति भी
इससे बहुत अलग कहां है । कितने सिकन्दर आए और चले गये । साहित्य भी इससे अछूता नहीं
है । हिन्दी साहित्य लेखन में संगठनों की भूमिका पर विचार करने से पहले यहां की राजनीतिक
बुनावट को देखना ही होगा । मोटे तौर पर हिन्दी में सारे लेखक संगठनों का चरित्र घोषित
रूप से वामपंथी है । वामपंथी पार्टियों कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया , कम्यूनिस्ट पार्टी
ऑफ़ इण्डिया (मार्क्सिस्ट) और कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया (मार्क्सिस्ट - लेनिनिस्ट)
के अपने-अपने लेखक संगठन हैं । जैसे-जैसे वामपंथी पार्टी में विघटन हुए वैसे-वैसे नए
लेखक संगठन भी बनते गए । क्रमश: ये वामपंथी लेखक संगठन हैं - प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस)
,
जनवादी लेखक संघ (जलेस) और जन संस्कृति मंच (जसम)
। इन पार्टियों या इन संगठनों की पंजिका खोल कर बैठना हमारा मकसद नहीं है । हम बहुत
कम शब्दों में इनकी भूमिका पर ही विचार करेंगे । आज इनकी प्रासंगिकता भी ज़रूर विचारणीय
होनी चाहिए । इस लेख में किन्हीं संदर्भ-ग्रंथों से ज़्यादा मैं अपने अनुभवों का सहारा
लेने की इजाज़त चाहूंगा ।
समकालीन सरोकार (संपादक-हरेप्रकाश उपाध्याय) के जनवरी,२०१३-अंक में प्रकाशित
किसी लेखक संगठन से रू-बरू होने का पहला बड़ा मौका उन दिनों आया
जब मैं गोरखपुर विशविद्यालय के गौतम बुद्ध हॉस्टल के कमरा नं छियासठ में रह रहा था
। एक सुबह एक मित्र दौड़ते भागते आए और बताया कि बी.एच.यू. से कोई प्रोफ़ेसर आए हैं , वे हिन्दी के किसी शोध छात्र से मिलना चाह रहे थे लेकिन इस वक्त
कोई है नहीं तो तुम बात कर लो । हालांकि हिन्दी का शोधार्थी न तो मैं था न ही मेरे
वे मित्र , बल्कि हम दोनों प्राणि-शास्त्र से स्नातकोत्तर के
छात्र थे , लेकिन थोड़ा बहुत लिखने पढ़ने की वजह से शायद उन्हें
लगा हो कि मैं प्रोफ़ेसर साहब की कुछ सहायता कर सकता हूं । थोड़ी ही देर बाद मेरे सामने
डॉ. अवधेश प्रधान खड़े थे । उन्होंने अपना परिचय देते हुए बताया कि गोरखपुर में जन संस्कृति
मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा है और वे उसी आयोजन में शिरकत करने आए हुए हैं । हिन्दी
का कोई शोधार्थी मिल जाता तो उसके कमरे में नहा-धो कर वे थोड़ा विश्राम कर लेते । मैंने
कहा कि इसे अपना कमरा ही समझिए और जब तक चाहें आराम फ़रमाइए । यह उनसे पहली मुलाकात
थी और मैं उन्हें नाम से जानता ज़रूर था । पत्र-पत्रिकाओं में उन्हें पढ़ा था । उन्होंने
बताया कि कथाकार सृंजय भी साथ ही हैं और थोड़ी ही देर में सृंजय भी आ गए । तब कॉमरेड
की कोट कहानी छप चुकी थी और सृंजय के जलवे थे । सच कहूं तो इस इत्तफ़ाक ने जसम से मेरा
परिचय करवाया । मेहमान नवाज़ी का ईनाम यह रहा कि सम्मेलन में शामिल होने का न्यौता तो
मिला ही , सम्मेलन के मंच से कविता पाठ का प्रस्ताव भी दे
दिया अवधेश प्रधान ने । तो अगले दो-तीन दिन तक बहुत सारे बड़े-बड़े लेखकों को प्रत्यक्ष
देखने सुनने का यह पहला अवसर था । नामवर सिंह , केदारनाथ सिंह , राजेन्द्र यादव , अदम गोंडवी , बल्ली सिंह चीमा , श्रमिक और कई और बड़े नाम जो अब ठीक ठीक याद नहीं आ रहे । यह
नब्बे के आस-पास की बात है । कविता पोस्टर बिक रहे थे । एक कविता पोस्टर मैं भी खरीद
लाया जिसमें राजेश जोशी , अरुण कमल
, उदय प्रकाश , अदम गोण्डवी वगैरह की कविताएं थीं । एक याद रह जाने लायक वाकया यह हुआ कि किसी
सत्र में नामवर सिंह ने कह दिया कि हिन्दी में उपन्यास की विधा अब मर गई है । यह एक
विवादास्पद बयान था ।
जसम के बारे में एक अच्छी राय बनाने के लिए ये अनुभव पर्याप्त
थे । बाद में जब गोरखपुर छूट गया और कलकत्ता में रहते हुए मैंने सुना कि कवि त्रिलोचन
को जसम वालों ने अध्यक्ष पद से हटा दिया है तो गहरा धक्का लगा । त्रिलोचन पर हिन्दू
धार्मिक प्रतीकों और हिन्दू मिथकों के कविता में इस्तेमाल करने को शायद वामपंथ विरोधी
मान लिया गया था । इस एक घटना ने जसम के बारे में बनी भावमूर्ति को एकबारगी ध्वस्त
कर दिया । मुझे लगा यह एक ओछी कार्रवाई है । आज तक मैं इस बात को गलत ही मानता हूं
और यह बात मुझे उलझन में डालती है कि एक स्वतंत्र लेखक के लिए विचारधारा के नाम पर
पार्टी लाइन ही क्यों पकड़नी होगी । यह पार्टी लाइन आखिर क्या चीज़ है । क्या यह लेखक
की स्वाधीनता में बाधक नहीं है । मैंने अपने अनुभवों से जाना कि लेखक के लिए पार्टी
लाइन पर चलना कोई शर्त नहीं हो सकती ।
कलकत्ता में रहते हुए और लिखते पढ़ते हुए जनवादी लेखक संघ के
कुछ आयोजनों में जाने का मौका मिला । अक्सरहा मित्र प्रफ़ुल्ल कोलख्यान के साथ ही जाना
होता । एक घटना याद आती है । शहीद मीनार में श्रमिकों-कर्मचारियों का समावेश था । हम
साथ गये । जुलूस में चले । मित्र प्रफ़ुल्ल कोलख्यान को हैरानी इस बात पर थी कि मैं
एक प्रशासनिक पद पर काम करते हुए भी इस समावेश में गया था । इस बात की चर्चा उन्होंने
मेरे सामने ही चन्द्रकला पाण्डेय से कर दी । वे तब मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी से
राज्यसभा सदस्य थीं । उस वक़्त हम स्वाधीनता के कार्यालय में बैठे थे । इस साधारण सी
घटना का असर यह हुआ कि स्वाधीनता के दीपावली विशेषांक के लिए मेरी कविताओं की मांग
होने लगी । शायद दूसरे या तीसरे साल स्वाधीनता के सम्पादक ने मेरी एक कविता को प्रश्नांकित
कर दिया । सवाल वही पुराना था । उन्हें लगता था कि कोई एक पंक्ति पार्टी लाइन के विरुद्ध
जा रही है । मैंने कहा पंक्ति तो नहीं हटाऊंगा , आप बेशक कविता न छापें । फिर पता नहीं क्या सोच कर उन्होंने वह कविता छाप दी ।
बाद के वर्षों में मैंने फिर स्वाधीनता के लिए कविताएं नहीं दीं । तो यह वैचारिक तानाशाही
मैंने यहां भी देखी । मैंने यह भी देखा कि इन संगठनों के पदाधिकारी गम्भीर लेखक नहीं
बल्कि पार्टी के अनुगत कर्मी ही ज़्यादा होते हैं । मैंने देखा कि ये हर सभा में एक
ही कविता पढ़ रहे हैं । मैंने जाना आना कम कर दिया । दूर से सलाम बंदगी हो जाती है ।
एक और काबिले-ज़िक्र वाकया है । कमला प्रसाद
,
प्रगतिशील वसुधा के सम्पादक और प्रलेस के राष्ट्रीय
महासचिव कलकत्ता सम्मेलन में आए हुए थे । तब तक मैं वसुधा में एकाधिक बार छप चुका था
। कमला प्रसाद जी के आग्रह पर सम्मेलन में गया । हिन्दी के दो चार पुराने जाने पहचाने
चेहरे ही नज़र आए । प्रादेशिक सम्मेलन में हिन्दी की इकाई का गठन ही नहीं हो पाया ।
मंच से बताया गया कि हिन्दी की समिति एक अलग सम्मेलन में चुनी जाएगी । बात आई गई हो
गई । तो यहां भी मेरा यकीन नहीं बन पाया कि पश्चिम बंगाल में संगठन को लेकर कमला प्रसाद बहुत गम्भीर हैं । खैर
कहना मैं यह चाहता हूं कि लेखक संगठन के प्रति जो गम्भीरता होनी चाहिए वह कहीं नहीं
दिखती । आप किसी भी संगठन का गठन-तंत्र देख लीजिए वहां कुछ लोग बराबर काबिज रहते हैं
। यह पार्टी लाइन से तय किया जाता है और लेखकीय सक्रियता से अधिक इस मामले में आनुगत्य
ही अहम भूमिका निभाया करता है । संगठित होना अच्छी बात है , लेकिन संगठित होने का उद्देश्य बहुत स्पष्ट होना चाहिए । लेखकों का कोई संगठन सिर्फ़ इसलिए खड़ा नहीं हो सकता कि उसे सत्ता की राजनीति करनी है । विचार करना लाजमी है कि लेखकों का शोषण किन स्तरों पर हो रहा है और ये संगठन उसके प्रतिकार के लिए क्या कर रहे हैं । यदि महत्वपूर्ण पदों पर बने रहना , अकादमियों की कार्यकारिणी में जगह बनाना , सरकारी संस्थानों पर काबिज होना आदि ही मक़सद हैं तो मैं लानतें भेजता हूं उनको जो यहां किसी भी तरह जुड़े रह कर सत्ता का सुख पाना चाहते हैं ।
लेखक एक समाज भी है । यहां व्याप्त वैमनस्य और कटुता किसी से छिपी नहीं है । कुछ व्यक्ति इस समाज में इतने प्रभावशाली हो उठते हैं कि विश्विद्यालयों की नियुक्तियों तक को प्रभावित करते हैं । मेरी आंखों के सामने ऐसे चेहरे घूम रहे हैं जिन्हें किसी यूनिवर्सिटी में होना चाहिए था । लेकिन वे किसी स्कूल में मास्टरी कर रहे हैं या किसी अखबार में कलम घिस रहे हैं । मेरे कई मित्र कहीं अनुवादक या अध्यापक हैं जिन्हें यूनिवर्सिटी में होना चाहिए था । लेकिन वहां गए वे लोग जो या तो पार्टी का बस्ता ढोते रहे या किसी प्रभावशाली व्यक्ति की सेवा में लगे रहे । उदय प्रकाश का नाम हमारे सामने ज्वलंत उदाहरण है । किस विशविद्यालय के किस विभागाध्यक्ष से कम योग्यता है उनकी । लेकिन वे आज की तारीख में एक स्वतंत्र लेखक भर हैं । कैसी विडम्बना है यह । अरविन्द त्रिपाठी की नियुक्ति विश्वविद्यालय में नहीं हो सकी । यह बात दीगर है कि वे हमारे समय के एक अनन्य आलोचक हैं । नीलम सिंह , विमलेश त्रिपाठी जैसी प्रतिभाएं हैं । आप कह सकते हैं कि क्या यह ज़रूरी है कि सारे प्रतिभाशाली किसी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय में हों । मैं कहूंगा बिलकुल ज़रूरी नहीं है , लेकिन आप यह समझाएं कि मीडियॉकर लोग वहां क्या कर रहे हैं । वह जगह मीडियॉकरों के लिए नहीं बनी है साहब ।
खैर यह तो एक पहलू भर है । एक प्रगतिशील लेखक संघ को छोड़ किसी भी बड़े लेखक संगठन का कायदे का अपना मुखपत्र तक नहीं है । प्रगतिशील वसुधा का निकलना मात्र एक अपवाद ही माना जाना चाहिए । क्यों नहीं जनवादी लेखक संघ या जन संस्कृति मंच अपनी पत्रिकाएं निकालते । क्यों नहीं वे नये लेखक तैयार करते । जवाब कौन देगा । और आखिर ऐसा क्यों है कि ताश के जोकर की तरह लेखक हर-एक संगठन में आना जाना करता रहता है । उसकी प्रतिबद्धता कहां है । वामपंथ की जब तीन प्रजातियां हैं तो तीनों में कुछ मूलभूत पार्थक्य भी तो होना चाहिए कि नहीं । आप तर्क देंगे कि यह हदबन्दी उचित नहीं । तो फिर तीनों संगठनों का विलय क्यों नहीं अवश्यम्भावी मान लिया जाए । ऐसा भी तो नहीं कि कोई संयुक्त मोर्चा हो जिसमें जलेस-प्रलेस-जसम एक साथ काम कर रहे हों । और बताइए कि किस लेखक संगठन ने प्रकाशन , वितरण , रॉयल्टी के मुद्दों पर कोई कठोर रुख अपनाया है । क्यों हिन्दी के लेखक को अपनी जेब से पैसे लगाकर किताब छपवाने की नौबत आती है । आप कहेंगे कि कुछ लेखकों में छपास है , प्रतिभा नहीं । तो फिर बताइए कि कितने प्रतिभावान लेखकों की किताबें छापी हैं इन संगठनों ने ।
तो इतना कहने का तात्पर्य यही है कि सड़ांध बहुत ज़्यादा है । मुक्तिबोध के शब्द दोहराऊं तो , "जो है उससे बेहतर चाहिए" । लेखकों का जो भी संगठन हो उसे लेखक समाज की बुनियादी ज़रूरतों , उनकी परेशानियों की जानिब भी सोचना पड़ेगा । और अहम बात यह कि यह काम पार्टी लाइन से सट कर संभव नहीं दिखता । आज वक़्त का तकाज़ा है कि मौज़ूदा सभी लेखक संगठनों को भंग कर दिया जाए । पूरे देश के गम्भीर लेखकों की पहल पर एक कन्वेन्शन बुलाई जाए । मुद्दे साफ़ हों । काम करने की दिशा साफ़ हो । लेखकों का शोषण बन्द हो । एक ऐसा माहौल तैयार हो जिसमें एक जेनुइन लेखक को वह मुकाम हासिल हो , वह सम्मान हासिल हो जिसका वह हक़दार है । सरकारी अकादमिक संस्थाओं में उन लेखकों को भेजा जाए जो जेनुइन लेखक हैं , वे न जाएं जो किसी फलाने साहब के अमुक-तमुक हों । राह आसान नहीं है , बेशक ।